30 May 2024 | HINDI Murli Today | Brahma Kumaris
Read and Listen today’s Gyan Murli in Hindi
30 May 2024
Morning Murli. Om Shanti. Madhuban.
Brahma Kumaris
आज की शिव बाबा की साकार मुरली, बापदादा, मधुबन। Brahma Kumaris (BK) Murli for today in Hindi. Source: Official Murli blog to read and listen daily murlis. ➤ पढ़े: मुरली का महत्त्व
“मीठे बच्चे - तुम्हें पहला-पहला निश्चय चाहिए कि हमको पढ़ाने वाला स्वयं शान्ति का सागर, सुख का सागर बाप है। कोई मनुष्य किसी को सुख-शान्ति नहीं दे सकता''
प्रश्नः-
सबसे ऊंची मंज़िल कौन-सी है? उस मंज़िल को पाने का पुरूषार्थ क्या है?
उत्तर:-
एक बाप की याद पक्की हो जाए, बुद्धि और कोई की तरफ न जाये, यह ऊंची मंज़िल है। इसके लिए आत्म-अभिमानी बनने का पुरूषार्थ करना पड़े। जब तुम आत्म-अभिमानी बन जायेंगे तो सब विकारी ख्यालात खत्म हो जायेंगे। बुद्धि का भटकना बंद हो जायेगा। देह के तरफ बिल्कुल दृष्टि न जाये, यह मंज़िल है इसके लिए आत्म-अभिमानी भव।
♫ मुरली सुने (audio)➤
ओम् शान्ति। रूहानी बच्चों प्रति रूहानी बाप बैठ समझाते हैं – इनको (ब्रह्मा बाबा को) रूहानी बाप नहीं कहेंगे। आज के दिन को सतगुरूवार कहते हैं, गुरूवार कहना भूल है। सतगुरूवार। गुरू लोग तो बहुत ढेर हैं, सतगुरू एक ही है। बहुत हैं जो अपने को गुरू भी कहते हैं, सतगुरू भी कहते हैं। अभी तुम बच्चे समझते हो – गुरू और सतगुरू में तो फ़र्क है। सत् अर्थात् ट्रूथ। सत्य एक ही निराकार बाप को कहा जाता है, न कि मनुष्य को। सच्चा ज्ञान तो एक ही बार ज्ञान सागर बाप आकर देते हैं। मनुष्य, मनुष्य को कभी सच्चा ज्ञान दे नहीं सकते। सच्चा है ही एक निराकार बाप। इनका नाम तो ब्रह्मा है, यह किसी को ज्ञान दे न सकें। ब्रह्मा में ज्ञान कुछ भी था नहीं। अभी भी कहेंगे इनमें सारा ज्ञान तो है नहीं। सम्पूर्ण ज्ञान तो ज्ञान सागर परमपिता परमात्मा में ही है। अभी ऐसा कोई मनुष्य है नहीं जो अपने को सतगुरू कहला सके। सतगुरू माना सम्पूर्ण सत्य। तुम जब सत बन जायेंगे तो फिर यह शरीर नहीं रहेगा। मनुष्य को कभी सतगुरू कह नहीं सकते। मनुष्यों में तो पाई की भी ताकत नहीं है। यह खुद कहते हैं मैं भी तुम्हारे जैसा मनुष्य हूँ, इसमें ताकत की बात उठ नहीं सकती। यह तो बाप पढ़ाते हैं, न कि ब्रह्मा। यह ब्रह्मा भी उनसे पढ़कर फिर पढ़ाते हैं। तुम ब्रह्माकुमार-कुमारियां कहलाने वाले भी परमपिता परमात्मा सतगुरू से पढ़ते हो। तुमको उनसे ताकत मिलती है। ताकत का मतलब यह नहीं कि कोई को घूंसा मारो जो गिर पड़े। नहीं, यह है रूहानी ताकत जो रूहानी बाप द्वारा मिलती है। याद के बल से तुम शान्ति को पाते हो और पढ़ाई से तुमको सुख मिलता है। जैसे और टीचर्स तुमको पढ़ाते हैं, वैसे बाप भी पढ़ाते हैं। यह भी पढ़ते हैं, स्टूडेन्ट हैं। देहधारी जो भी हैं वे सभी स्टूडेन्ट हैं। बाप को तो देह है नहीं। वह निराकार है, वही आकर पढ़ाते हैं। जैसे और स्टूडेन्ट पढ़ते हैं वैसे तुम भी पढ़ते हो। इसमें मेहनत की बात नहीं। पढ़ने समय हमेशा ब्रह्मचर्य में रहते हैं। ब्रह्मचर्य में पढ़कर जब पूरा करते हैं तब बाद में विकार में गिरते हैं। मनुष्य तो मनुष्य जैसे ही देखने में आते हैं। कहेंगे यह फलाना आदमी है, यह एल. एल. बी. है, यह फलाना आफीसर है। पढ़ाई पर टाइटिल मिल जाता है। शक्ल तो वही है। उस जिस्मानी पढ़ाई को तो तुम जानते हो। साधू-सन्त आदि जो शास्त्र पढ़ते-पढ़ाते हैं, उनमें कोई बड़ाई नहीं, उससे कोई को शान्ति तो मिल नहीं सकती। खुद भी शान्ति के लिए धक्के खाते हैं। जंगल में अगर शान्ति होती तो फिर वापिस क्यों लौटते! मुक्ति को तो कोई पाता नहीं। जो भी अच्छे-अच्छे नामीग्रामी राम कृष्ण परमहंस आदि होकर गये हैं, वह भी सब पुनर्जन्म लेते-लेते नीचे ही आये हैं। मुक्ति-जीवनमुक्ति को कोई भी पाते नहीं। तमोप्रधान बनना ही है। देखने में तो कुछ नहीं आता। कोई से पूछो – तुमको गुरू से क्या मिलता है? तो कहेंगे शान्ति मिलती है। परन्तु मिलता कुछ भी नहीं। शान्ति का अर्थ ही नहीं जानते। अभी तुम बच्चे समझते हो, बाबा ज्ञान का सागर है, और कोई साधू, सन्त, गुरू आदि शान्ति का सागर हो न सकें। मनुष्य किसको सच्ची शान्ति दे नहीं सकते। तुम बच्चों को पहले-पहले तो निश्चय करना है – शान्ति का सागर एक बाप है, जो हमको पढ़ाते हैं। सृष्टि का चक्र कैसे फिरता है, वह भी बाप ने समझाया है। मनुष्य, मनुष्य को कभी सुख-शान्ति दे नहीं सकते। यह (ब्रह्मा) उनका रथ है। तुम्हारे जैसा स्टूडेन्ट ही है। यह भी गृहस्थ व्यवहार में रहने वाला था। सिर्फ बाप को अपना रथ लोन पर दिया है, सो भी वानप्रस्थ अवस्था में। तुमको समझाने वाला एक बाप है, वह बाप कहते हैं सबको निर्विकारी बनना है। जो खुद नहीं बन सकते तो फिर अनेक प्रकार की बातें करेंगे, गालियां भी देंगे। समझते हैं हमारा जन्म-जन्मान्तर का भोजन जो बाप का वर्सा मिला हुआ है, वह छुड़ाते हैं। अब छुड़ाते तो वह बेहद का बाप है ना। इनको भी उसने छुड़ाया। बच्चों को भी बचाने की कोशिश की, जो निकल सके उनको निकाला। अब तुम बच्चों की बुद्धि में है कि हमको पढ़ाने वाला कोई मनुष्य नहीं है। सर्वशक्तिमान् एक ही निराकार बाप को कहा जाता है, और किसको कहा नहीं जाता। वही तुमको नॉलेज दे रहे हैं। बाप ही तुमको समझाते हैं। यह विकार तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है, इनको छोड़ो। फिर जो नहीं छोड़ सकते हैं वे कितना झगड़ा करते हैं। मातायें भी कोई-कोई ऐसी निकल पड़ती हैं जो विकार के लिए बड़ा हंगामा करती हैं।
अभी तुम हो संगमयुग पर। यह भी कोई नहीं जानते कि यह पुरूषोत्तम संगमयुग है। बाप कितना अच्छी रीति समझाते हैं। बहुत हैं जिनको पूरा निश्चय है। कोई को सेमी निश्चय है, कोई को 100, प्रतिशत, कोई को 10 प्रतिशत भी है। अब भगवान् श्रीमत देते हैं – बच्चे, मुझे याद करो। यह है बाप का बड़ा फ़रमान। निश्चय हो तब तो उस फ़रमान पर चलें ना। बाप कहते हैं – मेरे मीठे बच्चों तुम अपने को आत्मा समझ बाप को याद करो। इनको याद नहीं करना है। मैं नहीं कहता, बाबा मेरे द्वारा तुमको कहते हैं। जैसे तुम बच्चे पढ़ते हो तो यह भी पढ़ता है। सब स्टूडेन्ट हैं। पढ़ाने वाला एक टीचर है। वह सब मनुष्य पढ़ाते हैं। यहाँ तुमको ईश्वर पढ़ाते हैं। तुम आत्मायें पढ़ती हो। तुम्हारी आत्मा फिर पढ़ाती है। इसमें बहुत आत्म-अभिमानी बनना है। बैरिस्टर-इन्जीनियर आत्मा ही बनती है। आत्मा को अब देह-अभिमान आ गया है। आत्म-अभिमानी के बदले देह-अभिमानी बन पड़े हैं। जब आत्म-अभिमानी हो तब विकारी नहीं कहला सकते। उनको कभी विकारी ख्याल भी नहीं आ सकता। देह-अभिमान से ही विकारी ख्याल आते हैं। फिर विकार की ही दृष्टि से देखते हैं। देवताओं की विकारी दृष्टि कभी हो नहीं सकती। ज्ञान से फिर दृष्टि बदल जाती है। सतयुग में ऐसे थोड़ेही प्यार करेंगे, डांस करेंगे। वहाँ प्यार करेंगे परन्तु विकार की बांस नहीं होगी। जन्म-जन्मान्तर विकार में गये हैं तो वह नशा बहुत मुश्किल उतरता है। बाप निर्विकारी बनाते हैं तो कई बच्चियां बिल्कुल मजबूत हो जाती हैं। बस हमको तो पूरा निर्विकारी बनना है। हम अकेले थे, अकेले ही जाना है। उनको कोई थोड़ा टच करेगा तो अच्छा नहीं लगेगा। कहेंगे यह हमको हाथ क्यों लगाते हैं, इनमें विकारी बांस है। विकारी हमको टच भी न करे। इस मंजिल पर पहुँचना है। देह तरफ बिल्कुल दृष्टि ही न रहे। वह कर्मातीत अवस्था अभी बनानी है। अभी तक ऐसा नहीं है कि सिर्फ आत्मा को ही देखते हैं। मंजिल है। बाप हमेशा कहते रहते हैं – बच्चे, अपने को आत्मा समझो। यह शरीर दुम है, जिसमें तुम पार्ट बजाते हो।
कई कहते हैं इनमें शक्ति है। परन्तु शक्ति की कोई बात ही नहीं। यह तो पढ़ाई है। जैसे और भी पढ़ते हैं, यह भी पढ़ते हैं। प्योरिटी के लिए कितना माथा मारना पड़ता है। बड़ी मेहनत है इसलिए बाप कहते हैं एक-दो को आत्मा ही देखो। सतयुग में भी तुम आत्म-अभिमानी रहते हो। वहाँ तो रावण राज्य ही नहीं, विकार की बात नहीं। यहाँ रावण राज्य में सब विकारी हैं इसलिए बाप आकर निर्विकारी बनाते हैं। नहीं बनेंगे तो सजा खानी पड़ेगी। आत्मा पवित्र बनने बिगर ऊपर जा न सके। हिसाब-किताब चुक्तू करना पड़ता है। फिर भी पद कम हो पड़ता है। यह राजधानी स्थापन हो रही है। बच्चे जानते हैं स्वर्ग में एक आदि सनातन देवी-देवताओं का राज्य था। पहले-पहले तो जरूर एक राजा-रानी होंगे फिर डिनायस्टी होगी। प्रजा ढेर बनती है। उसमें अवस्थाओं में फर्क पड़ेगा, जिनको पूरा निश्चय नहीं वह पूरा पढ़ भी न सकें। पवित्र बन न सके। आधाकल्प के पतित एक जन्म में 21 जन्मों के लिए पावन बनें – मासी का घर है क्या! मुख्य है ही काम की बात। क्रोध आदि का इतना नहीं। कहाँ बुद्धि जाती है तो जरूर बाप को याद नहीं करते हैं। बाप की याद पक्की हो जायेगी तो फिर और कोई की तरफ बुद्धि नहीं जायेगी। बहुत ऊंची मंज़िल है। पवित्रता की बात सुनकर आग में जल मरते हैं। कहते हैं यह बात तो कभी कोई ने कही नहीं। कोई शास्त्र में है नहीं। बड़ा मुश्किल समझते हैं। वह तो है ही निवृत्ति मार्ग का धर्म अलग। उनको तो पुनर्जन्म ले फिर भी संन्यास धर्म में ही जाना है, वही संस्कार ले जाते हैं। तुमको तो घर-बार छोड़ना नहीं है। समझाया जाता है भल घर में रहो उन्हों को भी समझाओ – अब है संगमयुग। पवित्र बनने बिगर सतयुग में देवता बन नहीं सकेंगे। थोड़ा भी ज्ञान सुनते हैं तो वह प्रजा बनती जाती है। प्रजा तो ढेर होती है ना। सतयुग में वजीर भी नहीं होते क्योंकि बाप सम्पूर्ण ज्ञानी बना देते हैं। वजीर आदि चाहिए अज्ञानियों को। इस समय देखो एक-दो को मारते कैसे हैं, दुश्मनी का स्वभाव कितना कड़ा है। अभी तुम समझते हो हम यह पुराना शरीर छोड़, जाकर दूसरा लेते हैं। कोई बड़ी बात है क्या! वह दु:ख से मरते हैं। तुमको सुख से बाप की याद में जाना है। जितना मुझ बाप को याद करेंगे तो और सब भूल जायेंगे। कोई भी याद नहीं रहेगा। परन्तु यह अवस्था तब हो जब पक्का निश्चय हो। निश्चय नहीं तो याद भी ठहर नहीं सकती। नाम मात्र सिर्फ कहते हैं। निश्चय ही नहीं तो याद काहे को करेंगे। सबको एक जैसा निश्चय तो नहीं है ना। माया निश्चय से हटा देती है। जैसे के वैसे बन जाते हैं। पहले-पहले तो निश्चय चाहिए बाप में। संशय रहेगा क्या कि यह बाप नहीं है। बेहद का बाप ही ज्ञान देते हैं। यह तो कहता है मैं सृष्टि के रचयिता और रचना को नहीं जानता था। मेरे को कोई तो सुनायेगा। मैंने 12 गुरू किये, उन सबको छोड़ना पड़ा। गुरू ने तो ज्ञान दिया नहीं। सतगुरू ने अचानक आकर प्रवेश किया। समझा, पता नहीं क्या होना है। गीता में भी है ना, अर्जुन को भी साक्षात्कार कराया। अर्जुन की बात है नहीं, यह तो रथ है ना, यह भी पहले गीता पढ़ता था। बाप ने प्रवेश किया, साक्षात्कार कराया कि यह तो बाप ही ज्ञान देने वाला है, तो उस गीता को छोड़ दिया। बाप है ज्ञान का सागर। हमको तो वही बतायेगा ना। गीता है माई बाप। वह बाप ही है जिसको त्वमेव माताश्च पिता कहते हैं। वह रचना रचते, एडाप्ट करते हैं ना। यह ब्रह्मा भी तुम्हारे जैसा है। बाप कहते हैं इनकी भी जब वानप्रस्थ अवस्था होती है तब मैं प्रवेश करता हूँ। कुमारियां तो हैं ही पवित्र। उनके लिए तो सहज है। शादी के बाद कितने सम्बन्ध बढ़ जाते हैं इसलिए देही-अभिमानी बनने में मेहनत लगती है। वास्तव में आत्मा शरीर से अलग है। परन्तु आधाकल्प देह-अभिमानी रहे हैं। बाप आकर अन्तिम जन्म में देही-अभिमानी बनाते हैं तो मुश्किल भासता है। पुरूषार्थ करते-करते कितने थोड़े पास होते हैं। 8 रत्न निकलते हैं। अपने से पूछो – हमारी लाईन क्लीयर है? एक बाप के सिवाए और कुछ याद तो नहीं आता है? यह अवस्था पिछाड़ी में होगी। आत्म-अभिमानी बनने में बहुत मेहनत है। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार :
1) ज्ञान से अपनी दृष्टि का परिर्वतन करना है। आत्म-अभिमानी बन विकारी ख्यालात समाप्त करने हैं। किसी भी विकार की बांस न रहे, देह तरफ बिल्कुल दृष्टि न जाये।
2) बेहद का बाप ही हमें पढ़ाते हैं – ऐसा पक्का निश्चय हो तब याद मजबूत होगी। ध्यान रहे, माया निश्चय से जरा भी हिला न दे।
वरदान:-
सेवा-भाव सफलता दिलाता है, सेवा में अगर अह्म भाव आ गया तो उसको सेवा-भाव नहीं कहेंगे। किसी भी सेवा में अगर अहम्-भाव मिक्स होता है तो मेहनत भी ज्यादा, समय भी ज्यादा लगता और स्वयं की सन्तुष्टी भी नहीं होती। सेवाभाव वाले बच्चे स्वयं भी आगे बढ़ते और दूसरों को भी आगे बढ़ाते हैं। वे सदा उड़ती कला का अनुभव करते हैं। उनका उमंग-उत्साह स्वयं को निर्विघ्न बनाता और दूसरों का कल्याण करता है।
स्लोगन:-
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