12 February 2023 HINDI Murli Today | Brahma Kumaris

Read and Listen today’s Gyan Murli in Hindi

11 February 2023

Morning Murli. Om Shanti. Madhuban.

Brahma Kumaris

आज की शिव बाबा की साकार मुरली, बापदादा, मधुबन।  Brahma Kumaris (BK) Murli for today in Hindi. SourceOfficial Murli blog to read and listen daily murlis. पढ़े: मुरली का महत्त्व

सच्चे स्नेही बन एक बाप द्वारा सर्व सम्बन्धों का साकार में अनुभव करो

♫ मुरली सुने (audio)➤

आज विश्व स्नेही बापदादा अपने अति स्नेही और सदा बाप के साथी वा सहयोगी आत्माओं को देख रहे हैं। चारों ओर की सर्व ब्राह्मण आत्मायें स्नेही अवश्य हैं। स्नेह ने ब्राह्मण जीवन में परिवर्तन किया है। फिर भी स्नेही तीन प्रकार के हैं – एक हैं स्नेह करने वाले, दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले और तीसरे हैं स्नेह में समाये हुए। समाना अर्थात् समान बनना। स्नेह करने वाले कभी स्नेह करते हैं लेकिन करते-करते कभी स्नेह टूट जाता है, कभी जुट जाता है इसलिये समय प्रति समय स्नेह जोड़ने में पुरुषार्थ करना पड़ता है क्योंकि बाप के साथ-साथ और कहाँ भी स्नेह, चाहे व्यक्ति से, चाहे प्रकृति के साधनों से, कहाँ भी संकल्प मात्र भी स्नेह जुटा हुआ है तो बाप से स्नेह करने वालों की लिस्ट में आ जाते हैं। स्नेह की निशानी है बिना कोई मेहनत के स्नेही के तरफ स्नेह स्वत: ही जाता है। स्नेह करने वाली आत्मा का हर समय, हर स्थिति, हर परिस्थिति में आधार अनुभव होता है। अगर साधनों से स्नेह है तो उस समय बाप से भी ज्यादा साधन का आधार अर्थात् सहारा अनुभव होता है। उस समय उस आत्मा के संकल्प में बाप का स्नेह याद भी आता है, सोचते भी हैं कि बाप का स्नेह श्रेष्ठ है लेकिन यह साधन वा व्यक्ति का आधार भी आवश्यक है इसलिये दोनों तरफ स्नेह अधूरा हो जाता है और बार-बार स्नेह जोड़ना पड़ता है। एक बल, एक भरोसा के बजाय दूसरा भी भरोसा साथ-साथ आवश्यक लगता है इसलिये बाप के स्नेह द्वारा जो सर्व प्राप्ति का अनुभव हो उसके बजाय दूसरे सहारे द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति अपने तरफ आकर्षित कर लेती है। इतना आकर्षित करती है जो उसी को ही आवश्यक समझने लगते हैं। लगाव नहीं समझते, लेकिन सहारा समझते हैं। इसको कहा जाता है स्नेह करने वाले।

दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले। स्नेह करने के साथ-साथ निभाने की भी शक्ति है। निभाना अर्थात् स्नेह का रेसपॉन्स देना, रिटर्न देना। स्नेह का रिटर्न है जो स्नेही बाप बच्चों से श्रेष्ठ आशायें रखते हैं वो सर्व आशायें प्रैक्टिकल में पूर्ण करना। तो निभाने वाले बहुत करके प्रैक्टिकल में करके दिखाते हैं, लेकिन सदा बाप समान अर्थात् समाये हुए वो अनुभूति कभी होती है, कभी नहीं होती। फिर भी निभाने वाले समीप हैं, लेकिन समान नहीं है। निभाने वालों को निभाने के रिटर्न में पद्मगुणा हिम्मत और उमंग-उत्साह की मदद विशेष बाप द्वारा मिलती रहती है। तीसरे, जो स्नेह में समाये हुए हैं उन आत्माओं के नयनों में, मुख में, संकल्प में, हर कर्म में सहज और स्वत: स्नेही बाप का साथ सदा ही अनुभव होता है। बाप उससे जुदा नहीं और वो बाप से जुदा नहीं। हर समय बाप के स्नेह के रिटर्न में प्राप्त हुई सर्व प्राप्तियों में सम्पन्न और सन्तुष्ट रहते हैं इसलिये और किसी भी प्रकार का सहारा उन्हों को आकर्षित नहीं कर सकता क्योंकि कोई न कोई अल्पकाल की प्राप्ति की आवश्यकता किसी और को सहारा बनाती है अर्थात् सम्पूर्ण स्नेह में अन्तर डालती है। स्नेह में समाई हुई आत्मायें सदा सर्व प्राप्ति सम्पन्न होने के कारण सहज ही ‘एक बाप दूसरा न कोई’ इस अनुभूति में रहती हैं। तो स्नेही सभी हैं लेकिन तीन प्रकार के हैं। अब अपने से पूछो मैं कौन? अपने को तो जान सकते हैं ना। स्नेही हैं तभी स्नेह के कारण ब्राह्मण जीवन में चल रहे हो। लेकिन स्नेह के साथ निभाने की शक्ति, इसमें नम्बरवार बन जाते हैं। स्नेह के साथ शक्ति भी आवश्यक है। जिसमें स्नेह और शक्ति दोनों का बैलेन्स है, वही बाप समान बनता है। ऐसे समाई हुई आत्माओं का अनुभव यही होगा – बाप के स्नेह से दूर होना, यह मुश्किल है। समाना सहज है, दूर होना मुश्किल है क्योंकि समाई हुई आत्माओं के लिये एक बाप ही संसार है।

संसार में आकर्षित करने वाली दो ही बातें हैं – एक व्यक्ति का सम्बन्ध और दूसरा भिन्न-भिन्न वैभवों वा साधनों द्वारा प्राप्ति होना। तो समाई हुई आत्मा के लिये सर्व सम्बन्ध के रस का अनुभव एक बाप द्वारा सदा ही होता है। सर्व प्राप्तियों का आधार एक बाप है, न कि वैभव वा साधन। वैभव वा साधन रचना है और बाप रचता है। जिसका आधार रचता है उसको रचना द्वारा अल्पकाल के प्राप्ति का स्वप्न मात्र भी संकल्प नहीं हो सकता। बापदादा को कभी-कभी बच्चों की स्थिति को देख हंसी आती है क्योंकि आश्चर्य तो कह नहीं सकते, फुलस्टॉप है। चलते-चलते बीज को छोड़ टाल-टालियों में आकर्षित हो जाते हैं। कोई आत्मा को आधार बना लेते हैं, कोई साधनों को आधार बना लेते हैं क्योंकि बीज का रूप-रंग शोभनिक नहीं होता और टाल-टालियों का रूप-रंग बड़ा शोभनिक होता है। देहधारी के सम्बन्ध का आधार देह भान में सहज अनुभव होता है और बाप का आधार देह भान से परे होने से अनुभव होता है। देहभान में आने की आदत तो है ही। न चाहते भी हो सकते हैं इसलिये देहधारी के सम्बन्ध का आधार वा सहारा सहज अनुभव होता है। समझते भी हैं कि ये ठीक नहीं है फिर भी सहारा बना लेते हैं। बापदादा देख-देख मुस्कराते रहते हैं। उस समय की स्थिति हंसाने वाली होती है। जैसे आप लोग क्लासेस में वा भाषणों में एक तोते की कहानी सुनाते हो – उसको मना किया कि नलके पर नहीं बैठो लेकिन वो नलके पर बैठ करके बोल रहा था। ऐसे बच्चे भी उस समय मन में अपने आपसे एक तरफ यही सोचते रहते कि ‘एक बाप, दूसरा न कोई’, बार-बार अपने आपसे रिपीट भी करते रहते लेकिन साथ-साथ फिर यह भी सोचते कि स्थूल में तो सहारा चाहिए। तो उस समय हंसी आयेगी ना और उस समय फिर माया चांस लेती है। बुद्धि को ऐसा परिवर्तन करेगी जो झूठा सहारा ही सच्चा सहारा अनुभव होगा। जैसे आजकल झूठा, सच्चे से भी अच्छा लगता है, ऐसे उस समय रांग, राइट अनुभव होता है। और वो रांग बात, झूठा सहारा उसको पक्का करने के लिये वा झूठ को सच्चा साबित करने के लिये, जैसे कोई भी कमजोर स्थान होता है तो उसको मज़बूत करने के लिये पिल्लर्स लगाये जाते हैं तो माया भी कमजोर संकल्प को मज़बूत बनाने के लिये बहुत रॉयल पिल्लर्स लगाती है। क्या पिल्लर लगाती है? माया यही संकल्प देती है कि ऐसा तो होता ही है, कई बड़े-बड़े भी ऐसे ही करते हैं, ऐसे ही चलते हैं, या कहते अभी तो पुरुषार्थी ही हैं, सम्पूर्ण तो हुए नहीं हैं, तो ज़रूर अभी कोई न कोई कमी रहेगी ही, आगे चल सम्पूर्ण बन जायेंगे – ऐसे-ऐसे व्यर्थ संकल्प रूपी पिल्लर्स कमजोरी को मज़बूत कर देते हैं। तो ऐसे पिल्लर का आधार नहीं लेना। समय आने पर यह आर्टीफिशयल पिल्लर धोखा दे देते हैं। सर्व सम्बन्धों का सहारा एक बाप सदा रहे, यह अनुभव कम करते हो। इस सर्व सम्बन्धों के अनुभव को बढ़ाओ। सर्व सम्बन्धों की अनुभूति कम होने के कारण कहीं न कहीं अल्पकाल का सम्बन्ध जुट जाता है। स्थूल जीवन में भी स्थूल रूप का सहारा वा हर परिस्थिति में स्थूल रूप का सहयोग देने वाला सहारा बाप है। यह अनुभव और बढ़ाओ। ऐसे नहीं कि बाप तो है ही सूक्ष्म में सहयोग देने वाला। निराकार है, आकार है, साकार तो है नहीं, लेकिन हर सम्बन्ध को साकार रूप में अनुभव कर सकते हो। साकार स्वरूप में साथ का अनुभव कर सकते हो। इस अनुभूति को गहराई से समझो और स्वयं को इसमें मज़बूत करो। तो व्यक्ति, वैभव व साधन अपने तरफ आकर्षित नहीं करेंगे। साधनों को निमित्त मात्र कार्य में लाना वा साक्षी हो सेवा प्रति कार्य में लगाना – ऐसी अनुभूति को बढ़ाओ। सहारा नहीं बनाओ, निमित्त मात्र हो। इसको कहा जाता है स्नेह में समाई हुई समान आत्मा। तो अपने से सोचना कि मैं कौन? समझा? अच्छा!

सदा स्नेह में समाये हुए समान आत्माओं को, सदा एक बाप से सर्व सम्बन्ध का अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा एक बाप को आधारमूर्त, सच्चा सहारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सर्व प्राप्ति रचता बाप द्वारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सहज स्वत: ‘एक बल, एक भरोसा’ अनुभव करने वाली सच्चे स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात :- सदा समाये हुए हैं या याद करने की मेहनत करनी पड़ती है? सिवाए एक बाप के और कोई दिखाई नहीं देता। जब कहानियां सुनते हो तो हंसी आती है ना। कहानी जब तक चलती है तब तक समझ में नहीं आती और जब कहानी समाप्त होती है तो सोचते हैं यह क्या हुआ? मैं थी या और कोई था ऐसे भी सोचते हैंक्योंकि उस समय परवश होते हैं ना। तो परवश को अपना होश नहीं होता है। जब अपना होश आता है तो फिर आगे बढ़ने का जोश भी आता है। अच्छा, संगठन बढ़ता जा रहा है और बढ़ता ही रहेगा। और आप निमित्त आत्माएं यह सब खेल देख हर्षित होते रहते हो। सभी चल रहे हैं, कोई चल रहा है, कोई उड़ रहा है और आप लोग क्या करते हो? उड़ते-उड़ते साथ में औरों को भी उड़ा रहे हो क्योंकि रहमदिल बाप के रहमदिल आत्मायें बन गये, तो रहम आता है ना। घृणा नहीं आती लेकिन रहम आता है। और यह रहम ही दिल के प्यार का काम करता है। अच्छा, जो भी चल रहा है अच्छे ते अच्छा चल रहा है। अथक बन सेवा कर रहे हैं ना। निमित्त आत्माओं के अथकपन को देख सबमें उमंग आता है ना।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात – साधारणता को समाप्त कर विशेषता के संस्कार नेचुरल और नेचर बनाओ

अपने को सदा संगमयुग के रूहानी मौजों में रहने वाले अनुभव करते हो? मौजों में रहते हो वा कभी मौज में, कभी मूँझते भी हो या सदा मौज में रहते हो? क्या हाल-चाल है? कभी कोई ऐसी परिस्थिति आ जाए वा ऐसी कोई परीक्षा आ जाए तो मूंझते हो? (थोड़े टाइम के लिए) और उस थोड़े टाइम में अगर आपको काल आ जाए तो फिर क्या होगा? अकाले मृत्यु का तो समय है ना। तो थोड़ा समय भी अगर मौज के बजाए मूंझते हैं और उस समय अन्तिम घड़ी हो जाए तो अन्त मति सो गति क्या होगी? इसलिए सुनते रहते हो ना सदा एवररेडी! एवररेडी का मतलब क्या है? क्या हर घड़ी ऐसे एवररेडी हो? कोई भी समस्या सम्पूर्ण बनने में विघ्न रूप नहीं बने। अन्त अच्छी तो भविष्य आदि भी अच्छा होता है। तो एवररेडी का पाठ इसलिए पढ़ाया जा रहा है। ऐसे नहीं सोचो कि थोड़ा समय होता है लेकिन थोड़ा समय भी, एक सेकेण्ड भी धोखा दे सकता है। वैसे सोचते हैं ज्यादा टाइम नहीं चलता, ऐसा दो-चार मिनट चलता है लेकिन एक सेकेण्ड भी धोखा देने वाला हो सकता है तो मिनट की तो बात ही नहीं सोचो क्योंकि सबसे वैल्युएबुल आत्मायें हो, अमूल्य हो। अमूल्य आत्माओं का कोई दुनिया वालों से मूल्य नहीं कर सकते। दुनिया वाले तो आप सबको साधारण समझेंगे। लेकिन आप साधारण नहीं हो, विशेष आत्मायें हो। विशेष आत्मा का अर्थ ही है जो भी कर्म करे, जो भी संकल्प करे, जो भी बोल बोले वो हर बोल और हर संकल्प विशेष हैं, साधारण नहीं हो। समय भी साधारण रीति से नहीं जाये। हर सेकेण्ड और हर संकल्प विशेष हो। इसको कहा जाता है विशेष आत्मा। तो विशेष करते-करते साधारण नहीं हो जाये ये चेक करो। कई ऐसे सोचते हैं कि कोई गलती नहीं की, कोई पाप कर्म नहीं किया, कोई वाणी से भी ऐसा उल्टा-सुल्टा शब्द नहीं बोला, लेकिन भविष्य और वर्तमान श्रेष्ठ बनाया? बुरा नहीं किया लेकिन अच्छा किया? स़िर्फ ये नहीं चेक करो कि बुरा नहीं किया, लेकिन बुरे की जगह पर अच्छे ते अच्छा किया या साधारण हो गया? तो ऐसे साधारणता नहीं हो, श्रेष्ठता हो। नुकसान नहीं हुआ, लेकिन जमा हुआ? क्योंकि जमा का समय तो अभी है ना। अभी का जमा किया हुआ भविष्य अनेक जन्म खाते रहेंगे। तो जितना जमा होगा उतना ही खायेंगे ना। अगर कम जमा किया तो कम खाना पड़ेगा अर्थात् प्रालब्ध कम होगी। लेकिन लक्ष्य है श्रेष्ठ प्रालब्ध पाने का या साधारण भी हो जाये, तो कोई हर्जा नहीं? स्वर्ग में तो आ ही जायेंगे, दु:ख तो होगा नहीं, साधारण भी बने तो क्या हर्जा…? हर्जा है या चलेगा? तो चेक करो कि हर सेकेण्ड, हर संकल्प विशेष हो। जैसे आधा कल्प के देहभान का अभ्यास नेचुरली न चाहते हुए भी चलता रहता है ना। देह अभिमान में आना नेचुरल हो गया है ना। ऐसे देही अभिमानी अवस्था नेचुरल और नेचर हो जाये। तो जो नेचर होती है वह स्वत: ही अपना काम करती है, सोचना नहीं पड़ता है, बनाना नहीं पड़ता है, करना नहीं पड़ता है लेकिन स्वत: हो ही जाती है। तो ऐसे विशेषता के संस्कार नेचर बन जायें और हर एक के दिल से निकले। ऐसे नहीं कि मेरी नेचर यह है, मेरी नेचर यह है नहीं, हर एक के मुख से, मन से यही निकले कि मेरी नेचर है ही विशेष आत्मा के विशेषता की। तो ऐसे है या मेहनत करनी पड़ती है? जो नेचर होती है उसमें मेहनत नहीं होती। किसी की नेचर रमणीक है तो स्वत: ही रमणीकता चलती रहती है ना। उसको पता भी नहीं पड़ेगा कि मैंने क्या किया? कोई कहेगा तो भी कहेंगे कि मैं क्या करूँ, मेरी नेचर है। तो विशेषता की भी ऐसी नेचर हो जाये। कोई पूछे आपकी नेचर क्या है? तो सबके दिल से निकले कि हमारी नेचर है ही विशेषता की। साधारण कर्म की समाप्ति हो गई क्योंकि मरजीवा हो गये ना। तो साधारणता से मर गये, विशेषता में जी रहे हैं माना नया जन्म हो गया। तो साधारणता पास्ट जन्म की नेचर है, अभी की नहीं क्योंकि नया जन्म ले लिया। तो नये जन्म की नेचर विशेषता है, ऐसे अनुभव हो। तो अभी क्या करेंगे? साधारणता की समाप्ति। संकल्प में भी साधारणता नहीं।

मातायें मौज में रहती हो? कितना भी कोई मुंझाने की कोशिश करे लेकिन आप मौज में रहो। मुंझाने वाला मूंझ जाये लेकिन आप नहीं मूंझो क्योंकि अज्ञानियों का काम है मुंझाना और ज्ञानियों का काम है मौज में रहना। तो वो अपना काम करे और आप अपना काम करो। सदा मौज का अनुभव करो तब तो फ़लक से कह सकेंगे। होंगे तब ही तो कह सकेंगे ना? जो होगा नहीं तो कह भी नहीं सकता। चैलेन्ज कर सकते हो हम मूँझने वाले नहीं हैं क्योंकि विशेष आत्मायें हैं। क्या याद रखेंगे? मौज में रहने वाली विशेष आत्मा हैं। ऐसी हिम्मत वाले हो ना। हिम्मत वालों को मदद स्वत: ही मिलती है। अच्छा।

वरदान:-

भाग्य विधाता को अपना बनाने की विधि है – बाप और दादा दोनों के साथ संबंध। कई बच्चे कहते हैं हमारा तो डायरेक्ट निराकार से कनेक्शन है, साकार ने भी तो निराकार से पाया हम भी उनसे सब कुछ पा लेंगे। लेकिन यह खण्डित चाबी है, सिवाए ब्रह्माकुमार कुमारी बनने के भाग्य बन नहीं सकता। साकार के बिना सर्व भाग्य के भण्डारे का मालिक बन नहीं सकते क्योंकि भाग्य विधाता भाग्य बांटते ही हैं ब्रह्मा द्वारा। तो विधि को जानकर सर्व भाग्य के खजानों से भरपूर बनो।

स्लोगन:-

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